आसमाँ भी रोने को मजबूर था.
खुला था मेरे दिल का दरवाज़ा,
आहटों से उसकी बस कुछ कदम दूर था.
कुछ छीटें कभी खिड़की के रस्ते,
मेरे चेहरे को छू जाते दफातन.
जाने कब ये पहर बीत गया,
यादों में उसकी कुछ ऐसा मशगूल था .
वो ना आया पर उसकी राह तकते,
बदन पर हो गए कितने निशाँ .
डंक थे या थे उसकी तीखी नज़र,
सीने में कुछ चुभा ज़रूर था.
पहरों के पहरे भी अब मद्धम हो चले थे,
वो कातिल मेरा अँधेरे में काफूर था.
बस बची थी इक लाश, कुछ लहू के छीटें ,
और सहमा दिल अन्दर..
जो जीने को मजबूर था.
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