इस जश्न का ज़ोर मातम में क्यूँ बर्बाद करें.
खुद पे शर्म करने की भी आदत अब तो जाती रही,
ग़ैरों की बेशर्मी पर हम कैसे ऐतराज़ करें.
बस इक शर्त, इक वादा, इक ज़िद थी ज़िन्दगी,
चाहा एक की ख़ातिर ही सुरों को आज़ाद करें.
वो था बहता पानी और मैं ज़र्रा रेत का
मिलते तो बंधता घरोंदा, इरादा तो नेक था
ना वो रुका, ना मैं झुका
खुश्क आँखों में अब क्या ख्वाहिश-ए-आब करें
ग़ैरों की हंसी अब चुभ सी जाती है
धीमा है ज़हर बस मौत का इंतेज़ार करें.
सालों से सींचा था जिसे, मिल के बसाया था
उस बंजर बग़ीचे में क्या बसंत की बाट करें
झोली में कुछ खुशनुमा यादें , हैं दोनों के बदन पर छाले,
इन यादों के बोझ को कन्धों पे कैसे बर्दाश्त करें
दिन ही स्याह है, शाम की क्या बात करें....
No comments:
Post a Comment