Monday, October 29, 2012

चंद लम्हों की बेईमानी

कभी कहने - सुनने में गुज़रे कुछ पल,
तो कभी थमे कहा - सुनी में.
कुछ थे बीते कुछ सुनने की तड़प में,
कुछ आँखों से फिसले अनकही - अनसुनी में.

कुछ पल थे बोझिल, मसरूफ़ कुछ थे,
लापता हुए थे कुछ अनमनी में.
कुछ का थामा दामन, कुछ आदतन छूटे,
ढेरों थे अगवा वक़्त की गुमशुदगी में.

कभी फुर्सत में बैठें चल, करें हिसाब,
हैं कितने संजोये, कितने हैं गुमनामी में.
शायद हम अब तक बस आधा जिए हैं,
आधे नमक बन घुले हैं पानी में.

आ लूटें वो पलछिन वक़्त के दामन से,
और पिरो लें वापिस अपनी कहानी में.
ईमानदार अर्से जीने में वो लुत्फ़ कहाँ?
जो मज़ा है चंद लम्हों की बेईमानी में.

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